रणभूमि अध्याय 01 - शंखनाद

रणभूमि अध्याय 01 - शंखनाद

रणभूमि अध्याय 01 - शंखनाद

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

पाठकों आप सभी का स्वागत है।

मैं आपका सूत्रधार अनुज आपके लिए एक बहुत ही रोचक शृंखला लेकर आया हूँ। हम सभी ने महाभारत युद्ध के विषय में सुना है लेकिन उसके प्रत्येक दिन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के विषय में हमें बहुत ही कम जानकारी है। तो ये रणभूमि शृंखला आपको महाभारत युद्ध के पूरे 18 दिनों के युद्ध से विधिवत परिचय कराएगी।

कुरुक्षेत्र की भूमि शूरवीर योद्धाओं से पटी पड़ी थी। दोनों ओर एक से बढ़कर एक सूरमा खड़े हुए थे। युद्ध बस कुछ ही पलों में प्रारम्भ होना था। इस युद्ध से भारतवर्ष के भाग्य का निर्णय होना था। कौरव पक्ष दुर्योधन के अभिमान को सन्तुष्ट करने के लिए युद्ध में उतरा था और वहीं पाण्डव पक्ष धर्म और अपने अधिकारों के लिए युद्ध के लिए तत्पर थे।

लेकिन इसी बीच पाण्डव पक्ष के सबसे शूरवीर और ताक़तवर योद्धा अर्जुन ने युद्ध करने से मना कर दिया। उसने अपने धनुष और बाण रथ पर ही रख दिए। जिन गुरु ने उसे शिक्षा दी, जिन पितामह की गोद में वह खेला, जिन कुलगुरु ने उसे शास्त्रार्थ दिया आज वो उन्हीं लोगों के विरुद्ध खड़ा था, जिसका परिणाम उसे भी ज्ञात था। अर्जुन की योग्यता पर प्रश्नचिह्न खड़े करने वाले को यमलोक की यात्रा करना ही भाग्य में लिख जाता था। अर्जुन जैसा पराक्रमी, अनुशासित और तेजस्वी धनुर्धर पूरे भारतवर्ष में कहीं नहीं था। लेकिन अर्जुन आज अपने धनुष का सन्धान करने के लिए तैयार नहीं था। 

जबकि श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य शंख का नाद कर दिया था। कौरवों के पक्ष में नारायणी सेना की एक अक्षोहिणी सेना मिलाकर कुल 11 अक्षोहिणी सेनाएँ थीं, जिनमें गान्धार, मद्र, अंग जैसी सेनाएँ शामिल थीं। जबकि पाण्डवों के पास कुल 7 अक्षोहिणी सेना थी, जिनमें वृष्णि, मत्स्य और पांचाल जैसी सेनाएँ थीं। अक्षोहिणी सेना में 1:1:3:5 के हिसाब से रथ, गज, घुड़सवार और पैदल सैनिक का अनुपात माना जाता था। जिसका अर्थ है प्रत्येक 5 पैदल सैनिक पर 1 रथी, 1 गज और 3 घुड़सवार होते थे। इस तरह एक अक्षोहिणी सेना में 21870 हाथी, 21870 रथ, 65610 घोड़े और 109350 पैदल सैनिक थे।

युद्ध के नियम दोनों सेनाओं को भीष्म पितामह द्वारा स्पष्ट कर दिए गए थे। जिनमें प्रमुख नियम थे कि सन्ध्याकाल में युद्ध विराम की घोषणा के बाद आपसी प्रेम और मित्रता का व्यवहार होगा। जो भी सैनिक जिस तरह के युद्ध में पारंगत हो उससे उसी तरह का युद्ध किया जाएगा। रथी से रथी और पैदल से पैदल युद्ध करेगा। योग्यता अनुसार विपक्षी को सावधान करने के बाद ही युद्ध किया जाएगा। एक के मुक़ाबले एक होने की स्थिति में, शरण में चले जाने की स्थिति में, पीठ दिखाकर भाग जाने की स्थिति में और कवच, अस्त्र/ शस्त्र कट जाने की स्थिति में मनुष्य को मारा नहीं जाएगा। घोड़ों की सेवा करने वाले सूतों, बोझ ढोने वालों, शस्त्र पहुँचाने वालों तथा भेरी और शंख बजाने वालों पर कोई प्रहार नहीं करेगा। 

नियम दोनों पक्षों के लिए स्पष्ट थे लेकिन अर्जुन अपने परिजनों से युद्ध करने के लिए कदापि तैयार नहीं था। 

अर्जुन की इच्छा पर श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले गए। अर्जुन अपने सभी विरोधियों को एक अन्तिम बार देखना चाहता था। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, वहाँ सैनिक ही सैनिक दिखाई देते थे। जिनका अन्त निश्चित था। एक पूरी सभ्यता मृत्यु के द्वार पर खड़ी थी। अर्जुन का हृदय अपने परिजनों को देखकर करुणा से भर चुका था।

तब गाण्डीव त्याग चुके अर्जुन को श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया और समय की गति को रोककर सत्य, धर्म, न्याय, संयम, कर्म, भक्ति, मोक्ष इत्यादि विषयों का ज्ञान देते हुए अपना विराट रूप दिखाया।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

इस तरह गीता ज्ञान लेकर अर्जुन ने पुनः गाण्डीव धारण किया और युद्ध के लिए तैयार हो गया। दोनों सेनाओं ने अपनी-अपनी व्यूह रचना तय कर ली थी जिसमें कौरवों की ओर से भीष्म ने आक्रामक सर्वतोमुखी व्यूह का निर्माण किया और इसका सामना करने के लिए पाण्डवों की ओर से अर्जुन ने वज्र व्यूह का चयन किया। प्रथम दिन भीमसेन की चिंघाड़ पूरे युद्ध के शोर को काटती हुई चहुँओर सुनाई दे रही थी। उसने कौरव सेना के कई हाथियों को मार गिराया जिसमें सर्वाधिक हानि कलिंग सेना की हुई। अर्जुन, गंगापुत्र भीष्म से भिड़े। सात्यकि और कृतवर्मा का संग्राम हुआ। अभिमन्यु, महान धनुर्धर बृहदबल से भिड़ा। दुर्योधन और भीमसेन, नकुल और दुःशासन, सहदेव और दुर्मुख, युधिष्ठिर और मद्रराज शल्य, धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य ये सभी विरोधी एक-दूसरे पर इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति टूट पड़े थे और दोनों पक्ष ही एक-दूसरे को हानि पहुँचा रहे थे।

घटोत्कच ने राक्षस अलम्बुष पर आक्रमण किया। भगदत्त पर सेनापति विराट ने हमला किया। केकयराज बृहत्क्षेत्र पर कृपाचार्य ने आक्रमण किया। द्रुपद और जयद्रथ आपस में भिड़ गए। विकर्ण और सुतसोम ने एक-दूसरे पर धावा बोला। शकुनि और प्रतिविन्ध्य की भिड़न्त हुई। कम्बोज के राजा सुदक्षिण पर सहदेवपुत्र श्रुतकर्मा ने हमला किया।

इस भीषण युद्ध में ना कोई पुत्र अपने पिता को पहचानता था, ना पिता अपने पुत्र को। ना भाई, भाई को जानता था, ना मामा अपने भानजे को। मित्र, मित्र को भूल चुका था। कई पशु, कई मनुष्य क्षत-विक्षत हो पीड़ा से कराह रहे थे। घायल सैनिक अपने-अपने परिजनों को याद करते हुए अन्तिम साँसें ले रहे थे या विलाप कर रहे थे। तीर सर्पों के समान आकाश से धरती की ओर गिर रहे थे। युद्ध स्थल में इतनी धूल थी कि सूर्य ढँक गया था। तलवारों ने इतना रक्त पी लिया था कि उनका रंग लाल हो गया था।

परन्तु अभी भीष्म का रौद्र रूप शेष था। अभी पहले दिन के युद्ध का एक पहर भी पूरा नहीं हुआ था। भीष्म अपने रथ पर सवार होकर पाण्डव सेना पर बरसने के लिए तैयार खड़े थे। 

भीष्म पाँच अतिरथी वीरों से सुरक्षित होकर पाण्डवों की सेना में प्रवेश कर गए। वे लगातार शत्रु सेना पर काल बनकर बरस रहे थे। यह देखकर अभिमन्यु कुपित हो उठा और भीष्म के रथ की ओर चल पड़ा। अभिमन्यु ने तुरन्त ही तालचिह्नित भीष्म का ध्वज छेद डाला और भीष्म तथा उनके साथियों के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। अभिमन्यु के एक बाण से कृतवर्मा, पाँच बाणों से शल्य और नौ बाणों से भीष्म चोटिल हो गए। अभिमन्यु ने एक भाले से दुर्मुख के सारथी का मस्तक धड़ से अलग कर दिया और कृपाचार्य के धनुष को भी एक भाले से काट दिया।

युद्ध के पहले दिन अभिमन्यु, अर्जुन की तरह ही अपनी धनुर्विद्या से शक्ति प्रदर्शन कर रहा था। परन्तु भीष्म भी प्रतिउत्तर के लिए तैयार थे। उन्होंने नौ बाणों से अभिमन्यु को घायल किया और तीन बाणों से उसके ध्वज व अन्य तीन से उसके सारथी को मार गिराया।

अभिमन्यु अब पाँच रथियों से घिर चुका था लेकिन इसके बाद भी वो लगातार बाणों की वर्षा करता जा रहा था। अब भीष्म के प्रत्येक बाण का उत्तर अभिमन्यु भली प्रकार से दे रहा था। परन्तु जब भीष्म और अन्य रथियों का पक्ष अभिमन्यु पर भारी पड़ता दिखाई दिया तो चिन्तावश उत्तर, विराट, धृष्टद्युम्न, भीमसेन तथा सात्यकि जैसे 10 धनुर्धर अभिमन्यु की रक्षा के लिए दौड़े आए।

सिंह के ध्वज वाले भीमसेन का ध्वज भीष्म ने काटकर गिरा दिया और धृष्टद्युम्न व सात्यकि को चोटिल कर दिया। इसके उत्तर में भीमसेन ने भीष्म, कृपाचार्य और कृतवर्मा को बेध दिया। इसी समय विराट देश के राजकुमार उत्तर ने मद्र देश के स्वामी शल्य पर धावा बोल दिया।

शल्य और उत्तर के मध्य युद्ध छिड़ गया और जब उत्तर ने शल्य का रथ बर्बाद कर दिया तो शल्य ने लोहे की बनी हुई सर्प के समान एक शक्ति उत्तर पर चलाई जिससे उत्तर का कवच बिंध गया और वो अपने हाथी से नीचे गिर गया। इसके बाद शल्य ने उस हाथी को भी मारकर गिरा दिया। शल्य, कृतवर्मा के रथ पर सवार होकर जाने लगा तो विराट कुमार श्वेत ने शल्य को मार डालने की इच्छा से उस पर धावा किया। यह देखकर कौसल नरेश बृहदबल, मगध नरेश जयत्सेन, शल्य का पुत्र रुक्मरथ, अवन्ति राजकुमार विन्द और अनुविन्द, कम्बोज नरेश सुदक्षिण और बृहत्क्षेत्र पुत्र सिन्धुराज जयद्रथ जैसे सात रथियों ने शल्य को बचाने के लिए उसे घेर लिया।

राजकुमार श्वेत ने एक पल में ही सातों रथियों के धनुषों को काट दिया और अगले ही पल उन्होंने नए धनुष उठा लिए। उन्होंने एक साथ सात बाण श्वेत पर चलाए परन्तु श्वेत ने पुनः उनके धनुष काट दिए। शत्रु सेना का रुक्मरथ मूर्छित हो चुका था जिसके बाद उसका सारथी उसे रणभूमि से दूर ले गया। शेष छः रथियों को भी घायल करके श्वेत शल्य की ओर बढ़ गया। लेकिन इसी समय दुर्योधन ने भीष्म को आगे करके पूरी सेना के साथ शल्य को छुड़ा लिया।

इसके पश्चात भीष्म ने कई-कई रथियों के रथ काट दिए, उनके मस्तक धड़ से अलग कर दिए और शत्रु सेना पर मृत्यु बनकर टूट पड़े। लेकिन श्वेत ने भी शत्रु सेना से लोहा लेने में कमी नहीं छोड़ी और उससे डरकर कौरव सेना उसके बाणों की पहुँच से दूर जाकर खड़ी हो गई। इस तरह भीष्म और श्वेत के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया। भीष्म का पक्ष इस युद्ध में कमतर होता देख दुर्योधन ने सारी सेना भीष्म की रक्षा के लिए भेज दी।

भीष्म को जैसे ही कुछ समय मिला तो उन्होंने श्वेत के घोड़ों और सारथी को मार दिया। धरती पर पहुँचते ही श्वेत ने भीष्म पर शक्ति का प्रहार किया लेकिन भीष्म ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इसके उत्तर में श्वेत ने एक गदा के प्रहार से भीष्म को भी रथहीन कर दिया। भीष्म ने एक पंखयुक्त बाण को ब्रह्मास्त्र द्वारा अभिमंत्रित करके श्वेत पर छोड़ दिया। जो श्वेत के कवच और उसके हृदय को भेदता हुआ धरती में समा गया।

इस तरह अपने सेनापति के शोक में डूबी पाण्डव सेना प्रथम दिवस का युद्ध समाप्त होते ही अपने शिविर में आ गई। युद्ध के प्रथम दिन अर्जुन ने वज्र व्यूह का प्रयोग किया था जिसे भीष्म ने बड़ी आसानी से भेद दिया था और कई सहस्त्र पाण्डव सैनिकों को मृत्यु से आलिंगन करवाया था।

युद्ध के प्रथम दिन विराट देश के राजकुमार उत्तर और विराटपुत्र श्वेत को वीरगति प्राप्त हुई।

दूसरे दिन के युद्ध के साथ आपसे पुनः भेंट होगी, धन्यवाद


अच्युतानन्द मिश्र की क़लम से :
युद्ध से पहले युद्ध हुआ 
युद्ध के बाद भी युद्ध हुआ 
लेकिन युद्ध में युद्ध नहीं हुआ 
युद्ध में अर्जुन था 
युद्ध में कृष्ण थे 
कृष्ण अर्जुन को युद्ध के विषय में 
बताते रहे 
युद्ध में युद्ध नहीं होना था 
युद्ध में कृष्ण को होना था 
युद्ध में अर्जुन को होना था 
युद्ध से पहले युद्ध हुआ 
युद्ध के बाद भी युद्ध हुआ 
लेकिन युद्ध में युद्ध नहीं हुआ
एक दिन सब मारे जाएँगे
कृष्ण ने कहा
अर्जुन ने मृत्यु के लिए
तीर चलाया
युद्ध में दो ही बचे 
अर्जुन और कृष्ण 
युद्ध में दो ही मरे 
अर्जुन और कृष्ण 
युद्ध दो के बीच ही हुआ 
अर्जुन और कृष्ण
अर्जुन क्रिया है 
कृष्ण विचार 
शेष संज्ञाएँ 
नष्ट होनी थीं
नष्ट हुईं
……….