गंगा का प्रादुर्भाव
गंगा का प्रादुर्भाव
गंगा नदी जो हमारे देश में सबसे पवित्र और पूजनीय मानी जाती है, जिसके प्रादुर्भाव की हमने अमूमन बहुत कहानियाँ सुनी और देखी होंगी। पर जितनी कहानियाँ हैं उतनी ही मिथक अवधारणा भी पनपती है और सूत्रधार का हमेशा से ही यही प्रयास रहा है कि अनुचित मिथक, कहानियों को हटा कर आपके सामने सटीक और स्पष्ट तथ्य प्रस्तुत करना। तो आइए जानते है गंगा के प्रादुर्भाव की कहानी विस्तार से।
विश्वयोनि भगवान नारायण का जो ध्रुवाधार नामक पद है, उसी से त्रिपथगामिनी भगवती गंगा का प्रादुर्भाव हुआ है। वहाँ से चलकर वे सुधा की उत्पत्ति के स्थान और जल के आधारभूत चन्द्रमण्डल में प्रविष्ट हुईं और सूर्य की किरणों के सम्पर्क से अत्यन्त पवित्र हो मेरुपर्वत के शिखर पर गिरीं। वहाँ से गंगा चार धाराओं में बहने लगीं। मेरु के शिखरों और तटों से नीचे बहती गंगा का जल चारों ओर बिखर गया और आधार ना होने के कारण नीचे गिरने लगा। इस प्रकार वह जल, मन्दर आदि चारों पर्वतों पर बराबर-बराबर बँट गया। अपने वेग से बड़े-बड़े पर्वतों को काटते हुए गंगा की जो धारा पूर्व दिशा की ओर गई, वह सीता के नाम से विख्यात हुई। सीता चैत्ररथ नामक वन को जल से आप्लावित करती हुई वरुणोद सरोवर में गई और वहाँ से शीतान्त पर्वत तथा अन्य पहाड़ों को लाँघती हुई पृथ्वी पर आ पहुँची और समुद्र में मिल गई। इसी प्रकार मेरु के दक्षिण गन्धमादन पर्वत पर जो गंगा की दूसरी धारा गिरी, वह अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई। अलकनन्दा मेरु की घाटियों पर फैले हुए नन्दन वन, जो देवताओं का सबसे प्रिय प्राकृतिक स्थान माना जाता है, वहाँ से बहती हुई बड़े वेग से चलकर मानसरोवर में आ पहुँची। सरोवर को अपने जल से परिपूर्ण करके गंगा शैलराज के रमणीय शिखर पर बहने लगी। दक्षिण दिशा के सभी पर्वतों को गंगा ने अपने जल से आप्लावित कर दिया।
सब कुछ भर जाने के बाद गंगा हिमालय पर्वत पर जा पहुँची। वहाँ भगवान शंकर ने देखा कि गंगा अपने जल से सभी स्थानों को आप्लावित करने लगी है। ऐसे तो सब जलमग्न हो जाएगा तब उन्होंने गंगाजी को अपने शीश पर धारण कर लिया। तब राजा भगीरथ ने आकर उपवास और स्तुति के द्वारा भगवान शिव की आराधना की। उससे प्रसन्न होकर महादेवजी ने गंगा को छोड़ दिया। फिर वे सात धाराओं में विभक्त होकर दक्षिण समुद्र में जा मिलीं। उनकी तीन धाराएँ तो पूर्व दिशा की ओर गईं। परन्तु एक धारा भगीरथ के पीछे-पीछे दक्षिण दिशा की ओर बहने लगी। मेरुगिरि के पश्चिम में जो विपुल नामक पर्वत है, उस पर गिरी हुई महानदी गंगा की धारा स्वरक्षु के नाम से विख्यात हुई। वहाँ से वैराज पर्वत पर होती हुई स्वरक्षु शीतोद सरोवर में गई और उसे आप्लावित करके त्रिशिख पर्वत पर पहुँच गई। फिर वहाँ से अन्य पर्वतों के शिखरों पर होती हुई केतुमालवर्ष में पहुँचकर खारे पानी के समुद्र में मिल गई। मेरु के उत्तरीय पाद सुपार्श्व पर्वत पर गिरी हुई गंगा की धारा सोमा के नाम से विख्यात हुई और सावित्र वन को पवित्र करती हुई महाभद्र सरोवर में जा पहुँची। वहाँ से शंखकूट पर्वत पर वृषभ आदि शैलमालाओं को लाँघती हुई उत्तरकुरु नामक वर्ष में बहने लगी और अन्त में महासागर में जा मिली। तो हमने जाना कि कैसे गंगा का प्रादुर्भाव हुआ और कहाँ-कहाँ गंगा को किस नाम से जाना जाता है। परन्तु गंगा के प्रादुर्भाव से लेकर हम जब आज की गंगा पर प्रकाश डालते है तो हमें बहुत अन्तर देखने को मिलता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवताओं के मन में सदैव यह इच्छा रहती थी कि वह देवयोनि से भ्रष्ट होने पर भारतवर्ष में मनुष्य के रूप में उत्पन्न हों। देवताओं का मानना है कि भारतवर्ष के मनुष्य वह कार्य कर सकते हैं, जो देवता और असुरों के लिए भी असम्भव है; किन्तु खेद की बात है कि ये मनुष्य कर्मबन्धन में बँधकर अपने कर्मों की ख्याति, अपनी कीर्ति फैलाने में इतना व्यस्त हो गया है कि कर्म करना ही भूल गया है। सबसे पूजनीय मानी जाने वाली गंगा नदी जिसमें स्नान मात्र से आपके पापों का प्रायश्चित हो जाता है। आज उसकी ऐसी दुर्दशा है कि गंगा देश की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक गिनी जाती है। जितना गंगा मनुष्य के पाप को धो रही है मनुष्य उसे उतना ही मैला करता जा रहा है। ऐसी स्थिति को देखते हुए क्या यह कहना आज भी उचित होगा कि यह धरती एक कर्मभूमि है? यहाँ के सभी प्राणी निष्टा से अपने कर्म कर रहे हैं? क्या आज भी देवताओं के मन में पुनः इस धरती पर जन्म लेने की इच्छा होगी?
Source-मार्कण्डेय पुराण